भारत की साझी संस्कृति

 

भारत की साझी संस्कृति

डॉ. एम.डी. थॉमस

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संस्कृति एक सामाजिक अवधारणा है। व्यक्ति और व्यक्ति या समूह और समूह जब एक दूसरे के साथ अपनी ज़िंदगी को साझा करते हैं, संस्कृति यूँ ही उभरती है। मतलब यह है, संस्कृति, असल में, साझी संस्कृति होती है। यह बात पूरी दुनिया पर आम तौर पर और भारत पर खास तौर पर धटित होती है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक जमाने में महाबलि केरल पर राज किया करते थे। उनके राज में सब इन्सान बराबर थे और न बीमारी थी, न गरीबी। लोग स्वस्थ और सुखी थे। समृद्धि और खुशहाली इतनी थी कि उनकी शासन ‘सुशासन’ के लिये जानी जाती थी।

उनकी याद में हर साल ओणम् का पर्व मनाया जाता है, जो कि केरल के सभी समुदाय मिलकर मनाया करते हैं, चाहे वे केरल में हो, केरल के बाहर भारत में ही या विलायत में। जैसे महाबलि साझी संस्कृति की एक मजबूत मिसाल बने रहे, ठीक वैसे ही ओणम् भी साझी संस्कृति के जबर्दस्त प्रतीक के रूप में कायम रहता है।

पूरे भारत के संदर्भ में, ‘वसुधैवकुटुंबकम्, एकम् सत, विप्रा बहुधा वदंति, अच्छे विचार कहीं से भी आये स्वागत है, सर्वे भवंतु सुखिन:’, आदि बातें भारत के अनोखे आदर्श हैं और वे भारत की साझी विरासत की रीढ़ की हड्डी के समान हैं। जरूरत इस बात की है कि इन आदर्शों को जमीनी स्तर पर लागू किया जाय। 

भारत की वजूद भी अपने आप में साझी संस्कृति की एक मजबूत नजीर है। भारत के निर्माण में बहुतेरी संस्कृतियों और परंपराओं ने योगदान दिया है। सहस्राब्दियों से आदिवासी, द्रविड और आर्य संस्कृतियाँ भारत में रहती हैं। ईसवीं शती के पहले से लेकर जैन और बौद्ध परंपराएँ भारत में मौजूद हैं।

ईसवी सदी से, उसके पहले से और बाद से ईसाई, यहूदी और इस्लामी समुदाय भारत में रहते हैं। कुछ आगे से पारसी, सिक्ख और बहाई परंपराएँ भी भारत में हैं। ये सभी समुदाय भारत के निर्माण में विविध प्रकार से हिस्सेदार रहे। यहाँ तक कि जो मुगल और अंग्रेज भारत पर शासन करने आये थे, उन्होंने भी भारत को बनाने में अहम् योगदान दिया।

साथ ही, भारत के निर्माण का किसी एक नस्ल से मतलब नहीं है। तथाकथित नीची जाति के वाल्मीकि ने इस देश को रामायण-जैसा महाकाव्य दिया और अंबेडकर ने संविधान। इसी क्रम में विविध समुदायों के टाटा, बिड़ला-जैसे कतिपय व्यक्तियों ने भारत को बनाने में अपना-अपना हाथ बँटाया।  

इसका मतलब यह है कि किसी एक समुदाय का भारत को अपनी निजी संपत्ति समझने का हक नहीं है। जितनी भी परंपराओं ने भारत को बनाने में योगदान दिया है, या दूसरे शब्दों में, इस समय भारत में जितने भी नगरिक हैं, उन सबका भारत पर बराबर हक है। भारत उन सबका है। साझी संस्कृति ऐसी सोच का परिचायक है।

और तो और, भारत में इतनी विविधताएँ हैं कि दुनिया का कोई भी अन्य देश इसका मुकाबला नहीं कर सकता। सियासती दुनिया में राष्ट्रीय और प्रादेशिक दलों का इतना भरमार है कि लगता है कि सियासती अंदाज के तौर-तरीके कोई सीखे तो भारत से सीखे।

इसी क्रम में, भौगोलिक विशेषताएँ, मौसम, विचारधाराएँ, संस्कृतियाँ, धार्मिक परंपराएँ, रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा, कलात्मक अभिव्यक्तियाँ, आदि को लेकर भारत में जितनी विविधताएँ हैं उतनी विविधताएँ किसी भी अन्य भूभाग में नहीं हैं। इन सब का एक साथ होना भारत की साझी संस्कृति का जीता-जागता उदाहरण है।

भारत का संविधान विश्व के सबसे खूबसूरत संविधानों में एक है। इसकी पंथ-निरपेक्षता, लोकतंत्र, आदि आदर्शों में इन्सानी तहजीब खूबियाँ ही झलकती हैं। बराबरी, सम्मान, इज्जत, न्याय, सहयोग, आदि इन्सानी ज़िंदगी के चरम मूल्य हैं। संविधान के इन आदर्शों में साझी संस्कृति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है।

इसके बावजूद, यह बात जायज है कि मानव समाज में किसी भी मामले में सौ फीसदी पूर्णता नहीं हो सकती। सभी देशों में कमियाँ और समस्याएँ हमेशा से रही हैं। ये सदा रहेंगी भी। लेकिन जब समस्याएँ बहुत ज्यादा बढ़ जायेंगी, तब सामाजिक जीवन का अस्त-व्य्स्त हो जाना तय है।

कुछ समय से भारत में शरारती तत्व जरूरत से बहुत ज्यादा सक्रिय होता नजर आता है। कोई तानाशाही के बलबूते लोकतंत्र को चरमराने और नागरिक के हक को छीनने की कोशिश कर रहा है। कोई आजादी की आवाजों के प्रति कड़ाई से असहनशील होकर भारत में गुलामी का माहौल बनाने पर तुला है। कोई देश पर मालिकाना हक जता रहा है और कोई देश की ठेकेदारी कर रहा है। कोई अन्य समुदायों के नागरिकों की देश-भक्ति का इम्तहान लेकर उन्हें प्रमाण-पत्र बाँटने भी लगा है। कोई अपने करतबों से एतराज करने वालों को दूसरे देश के लिये पास्पोर्ट और वीसा मुहैया कराने को भी मुस्तैद दिखाई देते हैं।  

इतना ही नहीं, कोई देश को तोड़ने और बाँटने कर उससे नाजायज फायदा उठाने की ताक में है। कोई देश के अलग-अलग समुदायों के दर्मियान नफरत फैलाने और फासला बढ़ाने की फिराक में है। कोई हवाई बातों को मुद्दा बनाकर देश की सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित करने में लगा है। कोई झूठा इल्जाम लगाकर दूसरे की संपत्ति पर हमला कर उसके आत्म-विश्वास को कमजोर करने और किसी-किसी का कत्ल करने की हौड़ में रहता है। कोई कट्टर्वाद, गुण्डागर्दी, जंगलीपन, चालाकी, झूठ, मनमानी, आदि के जरिये ताकत और पैसे की बाजी मारने में लगा है।

खामियाजा यह है कि भारत का सामाजिक तालमेल और संतुलन लडख़ड़ा रहा है। देश में गलतफहमियाँ बढऩे लगी हैं। विविध समुदायों में आपसी रिश्तों में ढीलापन आ रहा है। देश की राष्ट्रीय धरोहर के रूप में चली आ रही साझी संस्कृति की हमारी विरासत बिखरती-कमजोर होती नजर आती है। देश पर मंडऱा रहा यह भयानक खतरा, असल में, भारत की एकता और अखण्डता के लिये खुदकुशी के बराबर है, ऐसा कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रौढ़ और प्रबुद्ध नागरिक को सतर्क और संगठित होकर भारत की अहमियत को बचाने की जरूरत है।

भारत की साझी संस्कृति को मजबूत करने के लिये मेरे दो सुझाव हैं। पहला है, सभी समुदाय के लोग औरों के देवालय में भी जायें और उनके साथ मिलकर खुदा का दीदार करने की कोशिश करें, पर्वों को मिल-जुलकर मनायें, दूसरे की भाषा सीखने का प्रयास करें और दूसरी परंपराओं से अच्छे मूल्यों को सीखें। इससे अपने-पराया का भेद काफी हद तक छूट जायेगा और ‘हम’ की भावना के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक समरसता विकसित होगी।

दूसरा है, देश में पिछड़े हुए वर्गों की ओर तरजीही तौर पर तवज्जो देने की जरूरत है। सड़क​ बनाते वक्त पहले गढ्ढों को सही तरीके से भरना होता है। डामर बिछाने की प्रक्रिया तभी कारगर होगी। ठीक वैसे ही, सबसे पहले महिलाओं को देशीय समाज के आधा हिस्सा मुहैया हो, जिससे वे देश और समाज को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी का हिस्सेदार बन सकें। देश के आधे से अधिक की युवा पीढ़ी को सही दिशा के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भागीदारी भी मिले।

इसके अलावा, कुछ खास और ठोस कदम भी बेहद जरूरी है। गरीबी रेखा के नीचे ज़िंदगी गुजारने को मजबूर लोगों को रोटी, कपड़ा, मकान और इज्जत दिलाने की योजनाबद्ध कोशिशें हो। हाशिए पर, खास तौर पर सड़कों और गलियों पर, सरकाये गये लोगों को मुख्य धारा में लाया जाय। यह देश जितना उच्च तबके के लोगों और ठेकेदारों का है, ठीक उतना ही यह उन लोगो का भी है। जब इस मसले पर अमल हो, तभी साझी संस्कृति संतुलित और मजबूत बनेगी। 

हकीकत में, साझी संस्कृति ‘मिल-जुल कर चलने’ या ‘सब को लेकर चलने’ की तहजीब है। हिंदी फिल्म ‘जमीर’ का गीत ‘हम भी चलें, तुल भी चलो, चलती रहे ज़िंदगी’ इस संदर्भ में सार्थक है। इस देश में सभी परंपराओं, विचारधाराओं और समुदायों के लोग रहें, जैसे किसी भी अच्छे बगीचे के पेड़-पौधे, घास-फूस और फूल हैं। महाबलि का राज-जैसे हर इन्सान और समुदाय को बराबर इज्जत और जीने-बढ़ने के मौके मिले, साझी संस्कृति की भावना कुछ ऐसी बने।

‘वसुधैवकुटुंबकम्’ की भावना उसी को नसीब होती है जो ‘उदारचरितानाम्’ हो। भारत के नागरिक के दिल-दिमाग खुल जाये और सभी समुदाय छोटे-बड़े का भाव रखे बिना एक दूजे से साथ घुल-मिल जाये। अपनी-अपनी आस्था से प्रेरणा पाकर जब सब मिलकर देश को ‘खुदा का परिवार’ बनाने का प्रयास करें, तब भारत में असल में विश्व-बंधुत्व की भावना कायम होगी। साझी संस्कृति बस उसी का नाम है। 

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लेखक इंस्टिट्यूट ऑफ हार्मनि एण्ड पीस स्टडीज़​, नयी दिल्ली, के संस्थापक निदेशक हैं। आप कुछ 40 वर्षों से सर्व धर्म सरोकार, राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समन्वय को बढ़ाने की दिशा में प्रतिबद्ध हैं। आप किताब, लेख, व्याख्यान, वीडियो संदेश, संगोष्ठी, सामाजिक चर्चा, आदि के ज़रिये उपर्युक्त मिशन में लगे हैं।

निम्नलिखित माध्यमों के द्वारा आप को देखा-सुना और आप से संपर्क किया जा सकता है। वेबसाइट: ‘www.mdthomas.in’ (p), ‘https://mdthomas.academia.edu’ (p), ‘https://drmdthomas.blogspot.com’ (p) and ‘www.ihpsindia.org’ (o); सामाजिक माध्यम: ‘https://www.youtube.com/InstituteofHarmonyandPeaceStudies’ (o), ‘https://twitter.com/mdthomas53’ (p), ‘https://www.facebook.com/mdthomas53’ (p); ईमेल: ‘mdthomas53@gmail.com’ (p) और दूरभाष: 9810535378 (p).

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संदेश (मासिक), पटना, अंक 6, पृष्ठ संख्या 26-27 -- जून 2016  में प्रकाशित 

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